समुद्र मंथन में निकले १४ रत्न

loard%2Bkrishna

समुद्र मंथन में निकले १४ रत्न 


श्री, रम्भा, विष, वारुणी, अमिय, शंख, गजराज। 
धनु, धन्वन्तरि, कल्पतरु, चाँद, धेनु, मणि, बाज।
पंचांग के अनुसार हर साल कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन धनवंतरि त्रयोदशी मनाई जाती है।मान्यता के अनुसार, इसी दिन समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए थे। इसलिए इस दिन भगवान धन्वंतरि की विशेष पूजा की जाती है। -धर्म ग्रंथों के अनुसार,श्री शुकदेव जी बोले, “हे राजन्! राजा बलि के राज्य में दैत्यअसुर तथा दानव अति प्रबल हो उठे थे। उन्हें शुक्राचार्य की शक्ति प्राप्त थी। इसी बीच दुर्वासा ऋषि के शाप से देवराज इन्द्र शक्तिहीन हो गये थे। दैत्यराज बलि का राज्य तीनों लोकों पर था। इन्द्र सहित देवतागण उससे भयभीत रहते थे। इस स्थिति के निवारण का उपाय केवल बैकुण्ठनाथ विष्णु ही बता सकते थे, अतः ब्रह्मा जी के साथ समस्त देवता भगवान नारायण के पास पहुचे। उनकी स्तुति करके उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। तब भगवान मधुर वाणी में बोले कि इस समय तुम लोगों के लिये संकट काल है। दैत्यों, असुरों एवं दानवों का अभ्युत्थान हो रहा है और तुम लोगों की अवनति हो रही है। किन्तु संकट काल को मैत्रीपूर्ण भाव से व्यतीत कर देना चाहिये। तुम दैत्यों से मित्रता कर लो और क्षीर सागर को मथ कर उसमें से अमृत निकाल कर पान कर लो। दैत्यों की सहायता से यह कार्य सुगमता से हो जायेगा। इस कार्य के लिये उनकी हर शर्त मान लो और अन्त में अपना काम निकाल लो। अमृत पीकर तुम अमर हो जाओगे और तुममें दैत्यों को मारने का सामर्थ्य आ जायेगा। 
“भगवान के आदेशानुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात बलि को बताया। दैत्यराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मन्दराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। वासुकी के नेत्र से नेतङ (राजपुरोहित) का उद्भव हुआ। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। भगवान नारायण ने दानव रूप से दानवों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। वासुकी नाग को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले दैत्य, असुर, दानवादि ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे। तब देवताओं ने वासुकी नाग के पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।
“समुद्र मंथन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। जो रत्न बरी बरी से निकले वो इस प्रकार से थे। 
(योजन वैदिक काल की हिन्दू लम्बाई मापन की इकाई है। 100 योजन से एक महायोजन बनता है। चार गाव्यूति = एक योजन
१ योजन कितनी दूरी होती है, यह अलग-अलग भारतीय खगोलविदों ने अलग-अलग दिया है। सूर्य सिद्धान्त में १ योजन को ८ किमी के बराबर लिया गया है। इसी तरह आर्यभटीय में भी १ योजन को ८ किमी लिया गया है। किन्तु १४वीं शताब्दी के खगोलविद परमेश्वर ने १ योजन को १३ किमी के बराबर लिया है।)

  1.   कालकूट (या, हलाहल)
  1. ·         ऐरावत
  1. ·         कामधेनु
  1. ·         उच्चैःश्रवा
  1. ·         कौस्तुभमणि
  1. ·         कल्पवृक्ष
  1. ·         रम्भा नामक अप्सरा
  1. ·         लक्ष्मी
  1. ·         वारुणी मदिरा
  1. ·         चन्द्रमा
  1. ·         पारिजात / धनुष 
  1. ·         शंख
  1. ·         धन्वन्तरि
  1.     अमृत

समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं महादेव जी का नीलकण्ठ के नाम से एक मंदिर उत्तराखंड में है ऋषिकेश से २७ कि.मी. ऊपर पहाड़ी पर है जो की अत्यंत रमणीक स्थान है झरने कल कल आनंदित करती है । उनकी हथेली से थोड़ा सा विष पृथ्वी पर टपक गया था जिसे साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया जिसकी वजह से वो भी विषैले हो गए 
“विष को शंकर भगवान के द्वारा पान कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे दैत्यराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने ग्रहण किया। ऐरावत के पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर  कल्पवृक्ष निकला जिसको दैत्य राज बलि ने रखलिया और ले जाकर स्वर्ग में स्थापित किया तब दैत्यराज बलि का राज्य स्वर्ग तक था और उसके पश्च्यात  रम्भा नामक अप्सरा निकली इसे भी देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर समु्द्र को मथने से लक्ष्मी जी निकलीं। लक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे दैत्यों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमापारिजात वृक्ष तथा पंचजन्य शंख निकले यहाँ ये बताना भी उचित है कि तुलसीदास कृत रामचरितमानस में पारिजात वृक्ष की जगह धनुष को उत्पन्न होना बताया गया है जिसका नाम का वर्णन नहीं है और अन्त में धन्वन्तरि वैध्य  अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।” धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को दैत्यों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी कि वे दैत्यों से लड़कर उस अमृत को ले सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये उनका आपस में लड़ना देखते रहे। देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल  मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते दैत्यों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर दैत्य तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब दैत्यों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त होकर एकटक देखने लगे।
कथा कैसी लगी नीचे कमेंट करके बताइये या ईमेल करिये 
bhaktikathain@gmail.com

Astrology And Falit Jyotish

Leave a Reply

Translate »
Scroll to Top
Bhag 1 Mesh Lagna me Dhan yog Today Horoscope 13 Nov 2023 Astrological Yogas Part 1 मेष लग्न में बैठे सूर्य Know Your Galaxy Today Horoscope 14 Nov 2022 Today Horoscope 13 Nov 2022
%d bloggers like this: