
तृष्णा
मित्र श्री दिलीप पाण्डेय से साभार प्राप्त
माता पार्वती और प्रभु शंकर जी बैठे वार्तालाप कर रहे थे, माता पार्वती जी प्रभु शंकर जी से बोली “प्रभु एक बात पूछना चाहती हूँ अगर आज्ञा हो तो पूंछू” महादेव जी मुस्कुरा कर बोले “हाँ पूंछो देवी “ माता पार्वती जी बोली “हे नाथ पशु पक्षी जड़ चेतन सब उसी में संतुष्ट हो जाते हैं जो प्रभु ने उनको दिया है किन्तु मनुष्य कभी भी प्रसन्न नहीं दिखाई देता चाहे उसको कितना भी प्राप्त हो जाए ऐसा क्यों है प्रभु ? “ माता पार्वती की बात सुन कर प्रभु बोले “हे प्रिये ! इसके पीछे मनुष्य की तृष्णा है जो की एक दुर्गुण की भांति मनुष्य के अंदर रहती है, मनुष्य चाह कर भी इससे दूर नहीं हो सकता जब कि ८४ लाख योनियों में मनुष्य को ही सबसे विकसित मस्तिष्क दिया गया है किन्तु वह उसका उपयोग दुर्गुणों को पालने के लिए करता है वैसे तो बहुत सारे दुर्गुण मनुष्य के अंदर हैं, किन्तु तृष्णा सबसे अधिक दुष्प्रभाव मनुष्य के जीवन पर डालती है जिसके कारन मनुष्य कभी भी किसी भी स्थिति में संतुस्ट नहीं हो पाता और उसी की वजह से वो प्रसन्न भी नहीं रह पाता और ये ही उसके दुःख का सबसे बड़ा कारण है।” माता पार्वती जी बोली “प्रभु मैं कुछ समझी नहीं” ये सुन कर प्रभु बोले “आओ आपको मृत्यलोक लेकर चलता हूँ वहां पर सब समझ आ जायेगा” कहकर शिव जी और माता पार्वती जी दोनों कैलाश पर्वत से मर्त्यलोक पर आ गए दोनों ने चलते-चलते देखा कि एक अनाज का व्यापारी अनाज के कई बोरे अपनी गाड़ी पर लाद कर चला जा रहा है कुछ दूर ही वो चल पाया था कि उसकी गाड़ी से एक अनाज का बोरा गिर गया जिसका उस व्यापारी को पता नहीं चला और वो अपने गंतव्य की और चला गया अब इधर जो बोरा गिर गया था उसका भी तो भाग्यानुसार बटवारा होना था तो सबसे पहले वो बोरा चींटियों की दृष्टि में आया चींटियों ने मुठ्ठी भर खाया और अपना पेट भर जाने पर चलती बनी, फिर वह अनाज का बोरा पक्षियों की दृष्टि में आया उन्होंने भी किलो दो किलो खाया और जब उनका पेट भर गया तो वो भी उड़ चले, फिर वह बोरा पशुओं को दिखाई दिया उन्होंने ने भी पाँच – सात किलो खाया और जब उनका पेट भर गया तो वो चलने ही वाले थे कि एक मनुष्य की दृष्टि उस अनाज के बोरे पर पड़ी लावारिस अनाज के बोरे पर पशुओं को मुँह मारता देख वो मनुष्य दौड़ता हुआ वहाँ आया और चिल्ला कर उसने पशु को उस अनाज के बोरे से दूर भगाया और फिर उस अनाज के पूरे बोरे को ही बड़े जतन से उठा कर अपने घर को चल दिया घर पर जाकर उसने अपनी पत्नी को वो अनाज का बोरा दिया और उस अनाज की प्राप्ति की सारी कहानी अपनी पत्नी को बताई पत्नी बोली “बताओ अगर पशुओं ने नहीं खाया होता तो पूरा बोरा अनाज का हमें मिल जाता अब कम से कम २० से ३० किलो कम हो गया है” पति भी बोला ” हाँ मुझे वहाँ पहुँचने में बिलम्ब हो गया “ और दोनों पति और पत्नी अपने बिलम्ब के कारण बहुत ही अप्रसन्न थे।
माता पार्वती जी शिवजी से बोली “नाथ चलिए कैलाश चलते हैं मेरी सब समझ में आ गया” प्रभु मुस्कुराये और बोले “अभी कुछ और भी बाँकी है प्रिये” माता पार्वती और भोले नाथ दोनों वहीँ रुक गए और उस मनुष्य के जोड़े का आगे का क्रिया कलाप देखने लगे। पति और पत्नी दोनों देर रात्रि तक उस अनाज की कम प्राप्ति का दुःख मानते रहे और उसी शोक में सो गए उनके सोने के उपरांत बहुत जोर का भूकंप आया और उनका माकन धराशाई हो गया और वो दोनों उसी के मलवे में दब कर मर गए प्रभु शिव जी बोले “चलो पार्वती अब कैलाश चलते हैं”।
बापस आते में भोले बाबा ने माता पार्वती जी से पूंछा “कुछ समझ में आया देवी ?” पार्वती जी बोलीं “हाँ भगवन मनुष्य ज्ञान का भंडार होते भी अपनी तृष्णा पर अंकुश नहीं लगा पाता और वो जहाँ सुख की अनुभूति हो वहां पर भी अपने तृष्णा के बशीभूत होकर दुःख का जाल बुन लेता है जब कि मनुष्य की तुलना में अन्य प्राणीयों का मस्तिष्क भी उतना विक्सित नहीं है फिर भी मनुष्य की तुलना में अन्य प्राणियों ने उस अनाज का केवल उतना ही उपयोग किया जितने में उनका पेट भरा और प्रसन्नता प्राप्त हुई किन्तु मनुष्य ने तृष्णा के बशीभूत हो कर जो प्राप्त किया उसका न आंनद उठा सका और जो अन्य प्राणी में से अपने भाग्य का खा गए उसके ऊपर भी अपना अधिकार समझ कर दुःख को अपना साथी बना लिया, जब कि उसको ये भी पता नहीं की जितना वो जोड़ रहा है उसका उपयोग वो कर भी पायेगा या नहीं “।
इसी को कहते हैं तृष्णा
खबर पल की नहीं, सामान जिंदगी का
इसी के ऊपर चंद पंकितयाँ बैनी कवि जी ने लिखी थीं
पंकज कोष में भृंग बसो, करतो अपने मन में मंसूबा।
होयगो प्रात उठेगो दिवाकर, जाउंगो धाम पराग ले खूबा।
बैनी सुबीचहिं और बनी, नहि जानत काल को ख्याल अजूबा।
आयो गजेंद्र चबाय गयो, रहि गओ मन को मन में मंसूबा।
प्रिय पाठको आप सभी को आभार इन कथाओं को पढ़ कर जो आपका स्नेह मुझे प्राप्त हो रहा है।
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