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२ . कर्ण की मृत्यु का सर्वप्रथम कारक तो स्वयं ऋषि दुर्वासा ही हैं। कुन्ती को यह वरदान देते समय कि वह किसी भी देव का आह्वान करके उनसे सन्तान प्राप्त कर सकती है, इस वरदान के परिणाम के बारे में नहीं बताया। इसलिए कुन्ती उत्सुकता वश सूर्यदेव का आह्वान करती है और यह ध्यान नहीं रखती कि विवाहपूर्व इसके क्या परिणाम हो सकते हैं और वरदानानुसार सूर्यदेव कुन्ती को एक पुत्र देते हैं। लेकिन लोक-लाज के भय से कुन्ती इस शिशु को गंगाजी में बहा देतीं है। तब कर्ण, महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा को मिलता है वे उसका लालन-पालन करते है और इस प्रकार कर्ण की क्षत्रिय पहचान निषेध कर दी जाती है। कर्ण हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी था ना कि युधिष्ठिर या दुर्योधन, लेकिन यह कभी हो ना सका क्योंकि उसका जन्म और पहचान गुप्त रखे गए।
कर्ण की मृत्यु के १५ कारण
१.कर्ण और अर्जुन के पिछले जन्म की कथा का वर्णन पद्म पुराण मे आता है एक बार भगवान ब्रह्मा और महादेव के बीच युद्ध छिड़ जाता है, युद्ध बहुत विकराल रूप ले लेता है महादेव ब्रह्माजी के पांचवें सर को काट देते है। क्रोधित ब्रह्मदेव के शरीर से पसीना निकलता है और उस पसीने से एक वीर योद्धा उत्पन्न होता है। जो स्वेद से जन्मा इसलिए स्वेदज के नाम से जाना गया । स्वेदज पिता ब्रह्माजी के आदेश से महादेव से युद्ध करने गया । महादेव भगवान विष्णु के पास जाकर क्रोधित ब्रह्म देव द्वारा जन्म लेने वाले स्वेदज का कुछ उपाय बताने को कहते हैं। भगवान विष्णु को और तो कुछ समझ में नहीं आता अतः वो अपने रक्त से एक वीर को जन्म देते हैं। ये वीर रक्त से जन्मा था इसलिए उसे रक्तज के नाम से जाना गया । स्वेदज 1000 कवच के साथ जन्मा था और रक्तज 1000 हाथ और 500 धनुष के साथ । भगवान ब्रह्माजी भी विष्णु से ही उत्पन्न हुए थे इसलिए स्वेदज भी भगवान विष्णु का ही अंश था। स्वेदज और रक्तज में भयंकर युद्ध होता है। स्वेदज, रक्तज के 998 हाथ काट देता है और 500 धनुष तोड़ देता हे। वही रक्तज, स्वेदज के 999 कवच तोड़ देता है। रक्तज बस हारने ही वाला होता है कि भगवान विष्णु समझ जाते हैं कि रक्तज स्वेदज से हार जाएगा। इसलिए वे उस युद्ध को शांत करवा देते हैं। स्वेदज दानवीरता दिखाते हुए रक्तज को जीवन दान देता है। भगवान विष्णु स्वेदज की जवाबदेही सूर्यनारायण को सोंपते हैं, और रक्तज की इंद्रदेव को किन्तु इन्द्र देव को हारे हुए योद्धा में कोई रुचि नहीं होती यह देख विष्णु देव इंद्रदेव को वचन देते हैं कि अगले जन्म में रक्तज अपने प्रतिद्वंद्वी स्वेदज का वध अवश्य करेगा। द्वापर युग में रक्तज अर्जुन और स्वेदज कर्ण के रुप में जन्म लेते हैं और अर्जुन अपने सबसे महान प्रतिद्वंद्वी कर्ण की युद्ध के नियमों के विरुद्ध जाकर हत्या करते हैं और इस हत्या को करने में नारायण की मुख्य भूमिका भी होती है।
२ . कर्ण की मृत्यु का सर्वप्रथम कारक तो स्वयं ऋषि दुर्वासा ही हैं। कुन्ती को यह वरदान देते समय कि वह किसी भी देव का आह्वान करके उनसे सन्तान प्राप्त कर सकती है, इस वरदान के परिणाम के बारे में नहीं बताया। इसलिए कुन्ती उत्सुकता वश सूर्यदेव का आह्वान करती है और यह ध्यान नहीं रखती कि विवाहपूर्व इसके क्या परिणाम हो सकते हैं और वरदानानुसार सूर्यदेव कुन्ती को एक पुत्र देते हैं। लेकिन लोक-लाज के भय से कुन्ती इस शिशु को गंगाजी में बहा देतीं है। तब कर्ण, महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा को मिलता है वे उसका लालन-पालन करते है और इस प्रकार कर्ण की क्षत्रिय पहचान निषेध कर दी जाती है। कर्ण हस्तिनापुर के सिंहासन का वास्तविक अधिकारी था ना कि युधिष्ठिर या दुर्योधन, लेकिन यह कभी हो ना सका क्योंकि उसका जन्म और पहचान गुप्त रखे गए।
३ . देवराज इन्द्र जिन्होंने बिच्छू के रूप में कर्ण की क्षत्रिय पहचान उसके गुरु के सामने ला दी और अपनी पहचान के सम्बन्ध में अपने गुरु से मिथ्याभाषण के कारण (जिसके लिए कर्ण स्वयं दोषी नहीं था क्योंकि उसे स्वयं अपनी पहचान का ज्ञान नहीं था) उसके गुरु ने उसे सही समय पर उसका शस्त्रास्त्र ज्ञान भूल जाने का श्राप दे दिया।
४ . गाय वाले ब्राह्मण का श्राप कि जिस प्रकार उसने एक असहाय और निर्दोष पशु को मारा है उसी प्रकार वह भी तब मारा जाएगा जब वह सर्वाधिक असहाय होगा और उसका ध्यान अपने शत्रु से अलग किसी अन्य वस्तु पर होगा। इसी श्राप के कारण अर्जुन उसे तब मारता है जब उसके रथ का पहिया धरती में धँस जाता है और उसका ध्यान अपने रथ के पहिए को निकालने में लगा होता है।
५ . धरती माता का श्राप कि वह नियत समय पर उसके रथ के पहिए को खा जाएगीं और वह अपने शत्रुओं के सामने सर्वाधिक विवश हो जाएगा।
६ . भिक्षुक के भेष में देवराज इन्द्र को, कर्ण द्वारा अपनी लोकप्रसिद्ध दानप्रियता के कारण अपने शरीर पर चिपके कवच कुण्डल दान में दे देना।
७ . ‘शक्ति अस्त्र’ का घटोत्कच पर चलाना, जिसके कारण वह वचनानुसार दूसरी बार इस अस्त्र का उपयोग नहीं कर सकता था।
८ . माता कुन्ती को दिए वचनानुसार ‘नागास्त्र’ का दूसरी बार प्रयोग ना करना।
९ . माता कुन्ती को दिए दो वचन।
१० . महाराज और कर्ण के सारथी पाण्डवों के मामा शल्य, जिन्होंने सत्रहवें दिन के युद्ध में अर्जुन की युद्ध कला की प्रशंसा करके कर्ण का मनोबल गिरा दिया।
११ . युद्ध से कुछ दिन पूर्व जब कर्ण को यह ज्ञात होता है कि पाण्डव उसके भाई हैं तो उनके प्रति उसकी सारी दुर्भावना समाप्त हो गई, पर दुर्योधन के प्रति निष्ठा होने के कारण वह पाण्डवों (अर्थात अपने भाईयों) के विरुद्ध लड़ा। जबकि कर्ण की मृत्यु होने तक पाण्डवों को यह नहीं पता था की कर्ण उनका ज्येष्ठ भाई है।
१२ . सूर्यदेव जो सत्रहवें दिन के युद्ध में तब अस्त हो गए जब कर्ण के पास अर्जुन को मारने का पूरा अवसर था।
१३ . द्रौपदी का अपमान करना।
१४ . श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को यह आदेश देना की वह कर्ण का वध करे जबकि वह अपने रथ के धँसे पहिए को निकाल रहा होता है और निहत्था होता हैै।
१५ . भीष्म पिता
मह, क्योंकि उन्होंने अपने सेनापतित्व में कर्ण को लड़ने की आज्ञा नहीं दी।
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जयश्रीराम
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